अगर पुलिस ही कर दे न्याय, तो अदालतों और वकीलों की ज़रूरत क्यों?

Delhi lawyers protesting against police video testimony in courts
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संजीव ठाकुर की कलम से

दिल्ली की अदालतों में इन दिनों थानों से वीडियो गवाही (Video Testimony from Police Stations) को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। उपराज्यपाल (LG) ने इसे तकनीकी सुविधा और न्यायिक प्रक्रिया को तेज़ करने का कदम बताया है, लेकिन वकीलों ने इसे न्याय प्रणाली पर सीधा खतरा करार दिया है।

वकीलों का कड़ा विरोध – “न्यायिक पारदर्शिता पर हमला”

दिल्ली बार एसोसिएशन के कई वरिष्ठ वकीलों का कहना है कि:

  • पुलिस की अदालत में शारीरिक मौजूदगी बेहद ज़रूरी है। जब पुलिसकर्मी सीधे जज और वकीलों के सामने पेश होते हैं, तो उनसे सवाल-जवाब करना आसान होता है।

  • इससे पुलिस की जवाबदेही (Accountability) बनी रहती है और न्यायिक प्रक्रिया पारदर्शी रहती है।

  • लेकिन अगर पुलिस थानों से ही वीडियो गवाही देने लगे, तो यह जवाबदेही कमजोर पड़ जाएगी और पुलिस पर मनमानी या राजनीतिक दबाव की गुंजाइश बढ़ जाएगी।

वकीलों की दलील है कि अगर यह व्यवस्था लागू हो गई तो “न्यायिक पारदर्शिता” और “आम आदमी का भरोसा” दोनों कमजोर होंगे।

“तेज़ न्याय” बनाम “निष्पक्ष न्याय”

वकीलों ने यह भी कहा कि—

“अगर पुलिस ही थानों से गवाही देकर खुद न्याय करने लगे तो अदालतों और वकीलों की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा।”

उनका मानना है कि थानों से गवाही सिर्फ “सुविधा” नहीं बल्कि गवाहों और आरोपियों पर दबाव का साधन भी बन सकती है।

दूसरी ओर, LG का तर्क बिल्कुल अलग है। उनका कहना है कि वीडियो गवाही से:

  • समय और संसाधनों की बचत होगी,

  • अदालतों का बोझ कम होगा,

  • और मुकदमों का निपटारा तेज़ी से किया जा सकेगा।

लेकिन वकीलों का डर है कि “तेज़ न्याय कहीं निष्पक्ष न्याय को कमजोर न कर दे।”

क्यों ज़रूरी है अदालत में पुलिस की मौजूदगी?

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि:

  • अदालत में पुलिस की शारीरिक मौजूदगी, जवाबदेही और पारदर्शिता की गारंटी है।

  • आम नागरिक अदालत को इसलिए भरोसेमंद मानता है क्योंकि वहां सबकी उपस्थिति में सुनवाई होती है।

  • अगर यह प्रक्रिया ऑनलाइन या थानों से शुरू हो गई तो ‘जवाबदेही’ की जगह ‘सुविधा’ ले लेगी।

निष्कर्ष

दिल्ली में उठे इस विवाद ने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सीमा रेखा को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है। सवाल यह है कि—

  • क्या तकनीकी सुविधा और समय की बचत के नाम पर निष्पक्ष न्याय से समझौता किया जा सकता है?

  • या फिर वकीलों की आशंका सही है कि यह कदम पुलिस को और ज्यादा शक्तिशाली बना देगा?

साफ है कि तेज़ न्याय और निष्पक्ष न्याय के बीच संतुलन कायम करना ही असली चुनौती है।

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